फाईलेरिया रोग का इलाज संभव है। अगर इसका इलाज प्रारंम्भिक अवस्था में हो जाय तो संक्रमण को फैलने से रोका जा सकता है। फाइलेरिया रोग में अकसर हाथ या पैर बहुत ही ज़्यादा सूज जाते हैं। इसलिए इस रोग को हाथी पांव भी कहते हैं। पर फाइलेरिया रोग से पीड़ित हर व्यक्ति के हाथ या पैर नहीं सूजते। यह बीमारी पूर्वी भारत, मालाबार और महाराष्ट्र के पूर्वी इलाकों में बहुत अधिक फैली हुई है।
यह कृमिवाली बीमारी है। यह कृमि लसिका तंत्र की नलियों में होते हैं और उन्हें बंद कर देते हैं। क्यूलैक्स मच्छर के काटने से बहुत छोटे आकार के कृमि शरीर में प्रवेश करते हैं। मलेरिया के कीड़ों की तरह यह कीड़े मनुष्यों और मच्छरों दोनों में छूत पैदा करते हैं फाइलेरिया (Lymphatic Filariasis) एक परजीवीजन्य संक्रामक बीमारी है जो धागे जैसे कृमियों से होती है। वैश्विक स्तर पर इसे एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी (Neglected Tropical Disease) माना जाता है।
फाइलेरिया दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों में एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। जिसमें भारत भी शामिल है। विश्व में लगभग 1.3 अरब लोगों को इस बीमारी के संक्रमण का खतरा है और लगभग 12 करोड़ लोग इससे वर्तमान में संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से लगभग 4 करोड़ लोग इस बीमारी की वजह से किसी विकृति का शिकार हो गए हैं या अक्षम हो चुके हैं।
फाइलेरिया 2.5 करोड़ से ज्यादा पुरुषों को जननांग के विकार और 1.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को सूजन से प्रभावित कर चुका है। हाथीपांव (Elephantiasis) फाइलेरिया का सबसे सामान्य लक्षण है जिसमें शोफ (Oedema) के साथ चमड़ी तथा उसके नीचे के ऊतक मोटे हो जाते हैं।
क्या हैं फाइलेरिया के लक्षण,filaria symptoms
इस तथ्य का अभी तक सटीक आकलन नहीं किया जा सका है कि संक्रमण के बाद फाइलेरिया के लक्षण प्रकट होने में कितना समय लगता है। हालांकि मच्छर के काटने के 16-18 महीनों के पश्चात बीमारी के लक्षण प्रकट होते हैं। फाइलेरिया के ज्यादातार लक्षण और संकेत वयस्क कृमि के लसीका तंत्र में प्रवेश के कारण पैदा होते हैं
कृमि द्वारा ऊतकों को नुकसान पहुंचाने से लसीका द्रव का बहाव बाधित होता है जिससे सूजन, घाव और संक्रमण पैदा होते हैं। पैर और पेड़ू सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले अंग हैं। फाइलेरिया का संक्रमण सामान्य शारीरिक कमजोरी, सिरदर्द, मिचली, हल्के बुखार और बार-बार खुजली के रूप में प्रकट होता है।
फाइलेरिया कभी-कभार ही जानलेवा साबित होता है, हालांकि इससे बार-बार संक्रमण, बुखार, लसीका तंत्र में गंभीर सूजन और फेफड़ों की बीमारी ‘ट्रॉपिकल पल्मोनरी इओसिनोफीलिया (Tropical Pulmonary Eosinophilia) हो जाती है। ट्रॉपिकल पल्मोनरी इओसिनोफीलिया के लक्षणों में खांसी, सांस लेने में परेशानी और सांस लेने में घरघराहट की आवाज होती है। लगभग 5 प्रतिशत मामलों में पैरों में सूजन आ जाती है जिसे फ़ीलपांव अथवा हाथीपांव कहते हैं। फाइलेरिया से गंभीर विकृति, चलने-फिरने में परेशानी और लंबी अवधि की विकलांगता हो सकती है।
फाइलेरिया के कारण हाइड्रोसील (Hydrocoele) भी हो सकता है। मरीज के वृषणकोष (Scrotum) में सूजन भी आ सकती है जिसे ‘फाइलेरियल स्क्रोटम’ (Filarial scrotum) कहा जाता है। कुछ मरीजों में मूत्र का रंग दूधिया हो जाता है। महिलाओं में वक्ष या बाह्य जननांग भी प्रभावित होते हैं। कुछ मामलों में पेरिकार्डियल स्पेस (हृदय और उसके झिल्लीदार आवरण के बीच की जगह) में भी द्रव जमा हो जाता है।
फाइलेरिया के कौन से कारक जीव
फाइलेरिया, फाइलेरियोडिडिया (Filariodidea) कुल के नेमैटोडों (गोलकृमि) के संक्रमण से होता है। तीन प्रकार के कृमि इस बीमारी को जन्म देते हैं। ये हैं वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई (Wuchereria bancrofti), ब्रुजिया मलाई (Brugia malayi) औरब्रुजिया टिमोरीई (Brugia timori)। वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई इस बीमारी का सबसे सामान्य कारक है जो पूरे विश्व में पाया जाता है।
ब्रुजिया मलाई दक्षिण-पश्चिम भारत, चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, दक्षिण कोरिया, फिलिपींस और वियतनाम में पाया जाता है जबकि ब्रुजिया टिमोराई सिर्फ इंडोनेशिया तक ही सीमित है।
वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई में नर कृमि 40 मिलीमीटर लंबा होता है जबकि मादा की लंबाई लगभग 50-100 मिलीमीटर होती है।
फाइलेरिया भारत में एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। यह संक्रामक बीमारी देश के राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, गुजरात, केरल एवं केन्द्र शासित प्रदेशों लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार में स्थाई रूप से उभरती रहती है।
भारत में मुख्य तौर पर फाइलेरिया के दो प्रकार के संक्रमण होते हैं, एक वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई से और दूसरा ब्रुजिया मलाई से। वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई के संक्रमण से होने वाला बैंक्रोफ्टियन फाइलेरिया (Bancroftian filaria) भारत में फाइलेरिया के कुल मामलों का लगभग 98 प्रतिशत होता है
कैसे फैलता है फाइलेरिया
फाइलेरिया मच्छरों से फैलता है जो परजीवी कृमियों के लिए रोगवाहक का काम करते हैं।
इस परजीवी के लिए मनुष्य मुख्य पोषक है जबकि मच्छर इसके वाहक और मध्यस्थ पोषक हैं।
कृमि प्रभावित क्षेत्रों से लोगों का रोजगार की तलाश में बाहर जाना, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, अज्ञानता, आवासीय सुविधाओं की कमी और स्वच्छता की अपर्याप्त स्थिति से यह संक्रमण फैलता है।
संक्रमण के बाद कृमि के लार्वा संक्रमित व्यक्ति की रक्तधारा में बहते रहते हैं जबकि वयस्क कृमि मानव लसीका तंत्र में जगह बना लेता है। एक वयस्क कृमि की आयु सात वर्ष तक हो सकती है।
संक्रमित मच्छर के काटने से इसके कीड़े फैलते है। जब मनुष्य बच्चा होता है तो आम तौर पर संक्रमण आरंभ हो जाता है। तीन प्रकार के कीड़े होते है जिनके कारण बीमारी फैलती है: Wuchereria bancrofti, Brugia malayi, और Brugia timori. Wuchereria bancrofti यह सबसे सामान्य है। यह कीड़ा lymphatic system को नुकसान पहुंचाता है।
रात के समय एकत्रित किए गए खून को, एक प्रकार के सूक्ष्मदर्शी के द्वारा देखने पर इस बीमारी का पता चलता है। खून को thick smear के रूप में और Giemsa के साथ दाग के रूप में होना चाहिए।. बीमारी के विरूद्ध एंटीबाडियों हेतु खून की जांच भी की जा सकती है।
यह शोथ न्यूनाधिक होता रहता है, परंतु जब ये कृमि अंदर ही अंदर मर जाते हैं, तब लसीकावाहिनियों का मार्ग सदा के लिए बंद हो जाता है और उस स्थान की त्वचा मोटी तथा कड़ी हो जाती है। लसीका वाहिनियों के मार्ग बंद हो जाने से यदि अंग फूल जाएँ, तो कोई भी औषध ऐसी नहीं है जो अवरुद्ध लसीकामार्ग को खोल सके।
कभी कभी किसी किसी रोगी में शल्यकर्म द्वारा लसीकावाहिनी का नया मार्ग बनाया जा सकता है। इस रोग के समस्त लक्षण फाइलेरिया के उग्र प्रकोप के समान होते हैं।
फाइलेरिया का घरेलू इलाज
इलाज बीमारी की शुरुआती अवस्था में ही शुरु हो जाना चाहिए। याद रखना चाहिए कि हाथों या पैरों की सूजन ठीक करने के लिए हमारे पास कोई भी दवाई नहीं है। डाईइथाइल – कार्बामाज़ीन (DEC) फाइलेरिया की एक दवा है। इसे दो हफ्तों दिया जाना चाहिए। इस दवा से सिर में दर्द, मितली, उल्टी जैसी प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। कभी कभी इससे एलर्जी भी हो जाती है। आप इसके बारे में और अधिक दवाइयों वाले अध्याय में पढ़ सकते हैं।
फाइलेरिया पर नियंत्रण या रोकथाम phayaleriya-check फायलेरिया जॉंच के लिये खून का नमूना रात में लेना पडता है इस बीमारी कृमि के कई एक वाहक इलाज के लिए नहीं पहुँचते। इसलिए संक्रमणग्रस्त इलाकों में सभी की जांच ज़रूरी है। ऐसा न होने पर बीमारी फैलती जाती है। जिन क्षेत्रों में फाइलेरिया की समस्या हो वहॉं खास सर्वे किए जाने ज़रूरी होते हैं। फाइलेरिया के नियंत्रण के लिए रात को खून के आलेप के नमूने इकट्ठे करना, रोकथाम के लिये दवा प्रयोग और बीएचसी छिडकाकर मच्छरों पर नियंत्रण करना जैसे कदम उठाना ज़रूरी है। जिन क्षेत्रों में फाइलेरिया की बीमारी ज़्यादा होती है वहॉं नमक में DEC दवा मिलाना ठीक रहता है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि हर व्यक्ति को यह दवा मिल जाए (कम मात्रा में) और इससे सूक्ष्म फाइलेरिया कृमि को मारा जा सकता है।
ये सूक्ष्म फाइलेरिया कृमि खून में घूमते रहते हैं। ऐसा खासकर रात को होता है। क्यूलैक्स मच्छर जब खून चूसता है तो वो इन सूक्ष्म फाइलेरिया को अपने अंदर ले लेता है। और संक्रमण पैदा करने वाले लार्वा के रुप में इनका विकास 10 से 15 दिनों के अंदर होता है। इस अवस्था में मच्छर बीमारी पैदा करने वाला होता है। इस तरह यह चक्र चलता रहता है।
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